निर्धन के लिए तन (पेट) अहम होता है, मन-मस्तिष्क-आत्मा-ध्यान-मोक्ष या परमात्मा नहीं

हम पर अक्सर यह सवाल दागा जाता है : आप बात तो ‘समता’ की करते हैं, असहायों के उद्धार की करते हैं, “जिसका कोई नहीं – उसका चेतना मिशन!” : यह आपका स्लोगन है, लेकिन आपके शिविर में सिर्फ रिच लोग, अमीर लोग ही होते हैं. कथनी-करनी का ऐसा अंतर क्यों?
मित्रों! एक तरफ राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, चैतन्य, नानक, जे. कृष्णमूर्ति, रमण महर्षि, योगी अरविंदो, मीरा, विवेकानंद, ओशो जैसी महान आत्माओं की लम्बी फेहरिस्त है तो दूसरी तरफ कबीर, रैदास, दादू, सहजोबाई और स्वयं मेरे जैसे गिने-चुने हस्ताक्षर. मुझ जैसे चंद लोगों को अपवाद ही माना जा सकता है.
मेरे शिविर में गरीब नहीं आते तो इसके लिए मैं दोषी नहीं हूँ. मैं मना नहीं करता, क्योंकि मैं व्यापार नहीं करता. धर्म की इंडस्ट्री नहीं है मेरे पास. मतलब मैं अन्यों की तरह बीसियों हज़ार प्रतिव्यक्ति शुल्क नहीं लेता. मेरे यहाँ सबकुछ निःशुल्क है. इलाज भी निःशुल्क है.
गरीब बिना शिविर के ही जब भी मेरे पास पहुंचता है, मैं अपने को असहाय पाता हूं. मैं जो कर सकता हूं, वह उसकी मांग नहीं है। जो वह चाहता है, उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। तो हमारे बीच ‘सेतु’ निर्मित नहीं हो पाता। गरीब कहता है कि मेरे पास नौकरी नहीं है, व्यापार नहीं है। बच्चों को ही ऐडजस्ट करवा दो. वह स्व-बोध की, परम-आनंद की, ध्यान की, आत्मा-परमात्मा की, मोक्ष की बात नहीं करता. वह मेरा आशीर्वाद चाहता है नौकरी के लिए, रोटी के लिए, तन के लिए। अब मैं ना तो गॉड हूँ और ना ही गवर्नर्मेंट हूँ. क्या करुं, कितनों का करुं.
और हाँ, धनी लोग आते हैं तो उनका सिर्फ घोषित उद्देश्य ही आत्मोन्नति होता है. मूलतः वे मन बहलाने, मूड चेंज करने, इंजॉय करने ही आते हैं. कभी-कभी ही कोई धनी आदमी आता है तो उसकी चाहना अध्यात्मिक होती है : कभी-कभी। तब वह कभी पूछता है कि मन अशांत है, सबकुछ है पर शांति नहीं, क्या करूं?
गरीब इंसान यह पूछता ही नहीं. इसलिए कि मन का अशांत होना एक खास विकास के बाद होता है। अभी पेट अशांत है; अभी मन को अशांत होने का उपाय भी नहीं है। पेट की भूख मिट जाए तो मन अशांत होगा, आगे के स्टेज के लिए।
मन भर जाए तो आत्मा बेचैन होगी। जब आत्मा बेचैन हो तभी मेरे पास आने का कोई अर्थ है। आत्मा बेचैन हो तो मेरे आशीर्वाद से, मेरे स्पर्श से कुछ हो सकता है, मेरे निकट होने से कुछ हो सकता है। जो मैं आपको दे सकता हूं, वह धन और है। जो धन लोगों द्वारा माँगा जाता है, वह मेरे पास नहीं है।
गरीब इंसान की पीड़ा मैं समझता हूं। उसकी कठिनाई मुझे साफ दिखती है. उससे भी ज्यादा साफ दिखती है जितनी उसके लिए साफ दिखती है।
मैं जानता हूं कि कितनी दयनीय दशा है. वह कह रहा है कि मुझे नौकरी चाहिए, व्यापार चाहिए, पेट भरने का साधन चाहिए. यह कितनी कष्टपूर्ण दशा है कि इंसान बीमार है और इलाज का इंतजाम नहीं कर पा रहा है! तभी तो वह मेरे पास आया है, नहीं तो क्यों आता।
लेकिन उसकी आकांक्षा बड़े क्षुद्र की है। वह सुई मांगने आया है. मैं इधर तलवार, तोप देने को तैयार हूं। लेकिन उसके लिए इसका क्या प्रयोजन है? वह कहता है, कपड़े फटे हैं, सुई मिल जाए तो मैं सिल लूं। मैं उसे तलवार दे भी दूं तो वह क्या करेगा? कपड़े और फाड़ लेगा। तलवार से तो कोई कपड़े सीए नहीं जाते।
इसलिए गरीब आदमी के मन में अध्यात्म का विचार ही नहीं उठ पाता। अपवाद छोड़ दें। कभी लाख में कोई एक आदमी गरीब होकर भी अध्यात्मिक हो सकता है; लेकिन उसके लिए बड़ी विवेशीलता चाहिए, तीव्र चेतना चाहिए।
गरीब आदमी में, “जो उसके पास नहीं है” उसकी व्यर्थता को समझने की क्षमता नहीं है. अमीर में यह क्षमता है, क्योंकि वह सब भोगकर भी अशांत है. इसलिए वह मेरे शिविर में आता है.
जो आपके पास है, उसकी व्यर्थता तक नहीं दिखाई पड़ती आपको; तो जो पास नहीं है, उसकी व्यर्थता कैसे दिखाई पड़ेगी? जिनके पास महल हैं, उन्हें नहीं दिखाई पड़ता कि महलों में कुछ नहीं है, सब यहीं रह जाना – शरीर तक. तो जिसके पास छोटा सा घर ही नहीं, उसको कैसे दिखाई पड़ेगा कि महलों में कुछ नहीं है? वह तो घर का और फिर महल का सपना देखेगा ना.
इसलिए अपवाद। कभी लाख में एक प्रतिभावान व्यक्ति बिना महलों में जीए, सिर्फ विचार से समझ लेता है कि वहां कुछ नहीं है. बिना अकूत धन पाए समझ लेता है कि धन में कोई भी सार नहीं है. बिना पद पाए समझ लेता है कि पद में कुछ है नहीं। तब वह जरूर कबीर, मीरा या मेरे सफ़र का हमसफ़र बनता है.
गरीब कहते हैं अक्सर : क्या रखा धन में! मगर यह संतोष के लिए कहते हैं। यह उनके बोध से जन्मी उनकी समझ नहीं है. यह सांत्वना है। ऐसा वे अपने मन को समझाते हैं कि रखा ही क्या है!
यह वही हालत है जो लोमड़ी ने अंगूर की तरफ छलांग मार कर अनुभव की थी। अंगूर तक नहीं पहुंच सकी, फासला बड़ा था। चारों तरफ उसने देखा कि कोई देख तो नहीं रहा, क्योंकि बेइज्जती का सवाल था। एक खरगोश झांक रहा था। उस खरगोश ने कहा, क्यों मौसी, क्या मामला है?
उस लोमड़ी ने कहा, मामला कुछ नहीं; अंगूर खट्टे हैं। छलांग छोटी है, इसे कहने में तो अहंकार को चोट लगती है। अंगूर खट्टे हैं, छलांग की जरूरत ही नहीं; बेकार सोच कर छोड़ दिए हैं।
बहुत से गरीब आदमी कहते मिलेंगे: क्या रखा धन में! क्या रखा महलों में! क्या रखा पदों में! इससे यह मत समझ लेना कि समझ आ गई है। यह तो सिर्फ सांत्वना है।
यह तो गरीब को अपने मन को समझाने का उपाय है। जो पाया नहीं जा सकता, उसमें कुछ रखा ही नहीं है, इसलिए तो हम नहीं पा रहे हैं, नहीं तो कभी का पाकर बता देते : यह वह कह रहा है। वह कह रहा है, अंगूर खट्टे हैं!
लेकिन जब कभी गरीब आदमी को वस्तुतः समझ होती है। ऐसा हो जाता है क्योंकि अनंत जन्मों से समझ संगृहीत होती है। किसी जन्म में आप अमीर भी रहे हो, महलों में भी रहे हो, बड़े सुख जाने हैं। तो उस सबसे संगृहीत समझ के आधार पर कभी कोई गरीब भी साधक-सिद्ध हो सकता है। अन्यथा गरीब आदमी की आकांक्षा अध्यात्म तक पहुंच नहीं पाती। उसकी छलांग छोटी है। उसकी मांग छोटी चीजों की है।
अब मेरी तकलीफ आप समझ सकते हो। तकलीफ यह है कि मैं उसे कुछ देना चाहता हूँ, जरूर देना चाहता हूँ ; लेकिन जो मैं देना चाहता हूं, वह उसके काम का नहीं है। जो वह मांगने आया है, वह न तो मेरे पास है, न देने योग्य है, न मांगने योग्य है। उसकी समझ तो उसे तभी आएगी जब वह गुजर जाए जीवन के अनुभव से।